Bhavishya Malika Katha - Nashik
Click to not get this popup again for next 3 days
Jai Shree Madhav
यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।
हमारा ब्रह्मांड पंचमहाभूतों अथवा पांच तत्वों से बना है - आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी। इसका उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों में भी मिलता है।
भगवान शब्द भी इन्हीं का संयोजन है जो निम्न प्रकार है,
भ - भूमि (पृथ्वी)
ग - गगन (आकाश)
व - वायु (वायु)
आ - अग्नि (अग्नि)
न - नीर (जल)
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.30)
श्री भगवान बोले – (हे चतुरानन!) मेरा जो ज्ञान परम गोप्य है, विज्ञान (अनुभव) से युक्त है और भक्ति के सहित है उसको और उसके साधन को मैं कहता हूँ, सुनो।
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.31)
मेरे जितने स्वरुप हैं, जिस प्रकार मेरी सत्ता है और जो मेरे रूप, गुण, कर्म हैं, मेरी कृपा से तुम उसी प्रकार तत्त्व का विज्ञान हो।
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.32)
सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त जो स्थूल, सूक्ष्म या प्रकृति है – इनमें से कुछ भी न था, सृष्टि के पश्चात भी मैं ही था, जो यह जगत (दृश्यमान) है, यह भी मैं ही हूँ और प्रलयकाल में जो शेष रहता है वह भी मैं ही हूँ।
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.33)
जिसके कारण आत्मा में वास्तविक अर्थ के न रहते हुए भी उसकी प्रतीति हो और अर्थ के रहते हुए भी उसकी प्रतीति न हो, उसी को मेरी माया जानो, जैसे आभास (एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा का भ्रमात्मक ज्ञान) और जैसे राहु (राहु जैसे ग्रह मण्डलों में स्थित होकर भी नहीं दिखाई पड़ता)।
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.34)
जैसे पाँच महाभूत उच्चावच भौतिक पदार्थों में कार्य और कारण भाव से प्रविष्ट और अप्रविष्ट रहते हैं, उसी प्रकार मैं इन भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट और अप्रविष्ट भी रहता हूँ (इस प्रकार मेरी सत्ता है)।
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.35)
आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अन्त तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरकलोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में सदैव एक समान रहता है, वही भगवान है।
श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.36)
चित्त की परम एकाग्रता से इस मत का अनुष्ठान करें, हे ब्रह्मा कल्प की विविध सृष्टियों में आपको कभी भी कर्तापन का अभिमान न होगा।
भगवान् स्वायम्भुव मनु ( भगवन ब्रह्मा जी के पुत्र ) ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वन में चले गये , उन्होंने सुनन्दा नदी के किनारे पृथ्वी पर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान् की स्तुति करते थे।
मनुजी कहा करते थे-
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.9)
जिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जाने पर प्रलय में भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं- वही परमात्मा हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.10)
यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहने वाले समस्त चर-अचर प्राणी- सब उन परमात्मा से ही ओत प्रोत हैं। इसलिये संसार के किसी भी पदार्थ में मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाह मात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
भला, ये संसार की सम्पत्तियाँ किसकी हैं?
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.11)
भगवान् सबके साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञान शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहने वाले उन्हीं स्वयं प्रकाश असंग परमात्मा की शरण ग्रहण करो।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.12)
जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँ से ? जिनका न कोई अपना है और न पराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर-सब कुछ हैं।
उन्हीं की सत्ता से विश्व की सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्मा हैं।
शास्त्रों में काल की गणना निम्न प्रकार से की गई है :-
एक प्रकार का काल संसार को नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलनात्मक है अर्थात् जाना जा सकता है। यह भी दो प्रकार का होता है- स्थूल और सूक्ष्म। स्थूल नापा जा सकता है, इसलिए मूर्त कहलाता है और सूक्ष्म नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है।
पहले प्रकार के काल की कल्पना भी नहीं हो सकती, क्योंकि न तो यही मालूम है कि वह कब से आरंभ हुआ और न यही मालूम होगा कि उसका अन्त कब होगा। यह अखंड और व्यापक है; परन्तु इसके बीच में ही अथवा इसके उपस्थित रहते ही लोक का अन्त हो जाता है, ब्रह्मा उत्पन्न होते, सृष्टि रखते तथा लय करते हैं, परन्तु काल बना ही रहता है। इसलिए इसको लोकों का अन्त कर देनेवाला, नाश कर देनेवाला, कहते हैं। इसीलिए मृत्यु को भी काल कहते हैं।
काल का जो थोड़ा-सा मध्य भाग जाना जा सकता है; उसमें भी जो बहुत छोटा है वह नापा नहीं जा सकता है और अमूर्त कहलाता है। नापने में जितनी ही सूक्ष्मता होगी अमूर्त काल की परिभाषा भी नयी होती जायगी;
प्राण से लेकर ऊपर की जितती समय की इकाइयाँ हैं वह मूर्त कहलाती हैं और त्रुटि से लेकर प्राण के नीचे की इकाइयों को अमूर्त कहते हैं। 6 प्राणों की एक विनाड़ी (पल) तथा 60 विनाड़ियों की एक नाड़ी (घड़ी) होती है। 60 नाड़ियों का एक नाक्षत्न अहोरात्र (दिन रात का एक जोड़ा) तथा 30 नाक्षत्न अहोरात्नों का एक नाक्षत्र मास होता है। इसी प्रकार 30 सावन दिनों का एक सावन मास होता है। उसी प्रकार 30 चान्द्र तिथियों का एक चान्द्रमास तथा एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक के समय को सौरमास कहते हैं। 12 मासों का एक वर्ष होता है; जिसको दिव्यदिन अथवा देवताओं का दिन कहते हैं।
स्वस्थ मनुष्य सुख से बैठा हुआ हो तो जितने समय में वह सहज ही हवा (प्राण वायु) भीतर खींचता और बाहर निकालता है उस समय को प्राण कहते हैं। यही सबसे छोटी इकाई है, जो उस समय नापी जा सकती थी। इससे कम समय के नापने का कोई साधन उस समय नहीं था; इसलिए उसको अमूर्त कहते थे। अब ऐसी घड़ियाँ बनायी जाती हैं जिनसे उस इकाई का भी नापना सहज है जो अमूर्त कही गयी हैं। एक नाक्षत्न दिन में 60 घड़ी = 60 X 60 पल = 60 X 60 X 60 प्राण अथवा 21600 प्राण होते हैं। इसी तरह 1 दिन में 24 घंटे = 24 X 60 मिनट 24 X 60 X 60 सेकंड अथवा 86400 सेकंड होते हैं। इसलिए 1 प्राण में 4 सेकंड होते हैं। जिस घड़ी में सेकंड जानने की सुई लगी रहती है उससे सेकंड का नापना कितना सहज है, यह सबको विदित है। ऐसी घड़ियाँ भी हैं जिनसे 1 सेकंड का पांचवाँ अथवा दसवां भाग सहज ही जाना जा सकता है। परन्तु 1 सेकंड का दसवां भाग 1 प्राण के चालीसवें भाग के समान है। इसलिए आजकल प्राण के नीचे की कुछ इकाइयाँ भी मूर्त कही जा सकती हैं।
प्राण को असु भी कहते हैं....
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.2)
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित् ! मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि और देवता-सबको नियुक्त करने वाले स्वयं भगवान् ही हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.3)
राजन् ! भगवान् के जिन यज्ञपुरुष आदि अवतार शरीरों का वर्णन मैंने किया है, उन्हीं की प्रेरणा से मनु आदि विश्व-व्यवस्था का संचालन करते हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.4)
चतुर्युगी के अन्त में समय के उलट-फेर से जब श्रुतियाँ नष्टप्राय हो जाती हैं, तब सप्तर्षिगण अपनी तपस्या से पुनः उनका साक्षात्कार करते हैं। उन श्रुतियों से ही सनातन धर्म की रक्षा होती है।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.5)
राजन् ! भगवान् की प्रेरणा से अपने-अपने मन्वन्तर में बड़ी सावधानी से सब-के-सब मनु पृथ्वी पर चारों चरण से परिपूर्ण धर्म का अनुष्ठान करवाते हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.6)
मनुपुत्र मन्वन्तर भर काल और देश दोनों का विभाग करके प्रजापालन तथा धर्मपालन का कार्य करते हैं। पंच-महायज्ञ आदि कर्मों में जिन ऋषि, पितर, भूत और मनुष्य आदि का सम्बन्ध है- उनके साथ देवता उस मन्वन्तर में यज्ञ का भाग स्वीकार करते हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.7)
इन्द्र भगवान् की दी हुई त्रिलोकी की अतुल सम्पत्ति का उपभोग और प्रजा का पालन करते हैं। संसार में यथेष्ट वर्षा करने का अधिकार भी उन्हीं को है।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.8)
भगवान् युग-युग में सनक आदि सिद्धों का रूप धारण करके ज्ञान का, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों का रूप धारण करके कर्म का और दत्तात्रेय आदि योगेश्वरों के रूपमें योग का उपदेश करते हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.9)
वे मरीचि आदि प्रजापतियों के रूप में सृष्टि का विस्तार करते हैं, सम्राट के रूप में लुटेरों का वध करते हैं और शीत, उष्ण आदि विभिन्न गुणों को धारण करके कालरूप से सबको संहार की ओर ले जाते हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.10)
नाम और रूप की माया से प्राणियों की बुद्धि विमूढ़ हो रही है। इसलिये वे अनेक प्रकार के दर्शन शास्त्रों के द्वारा महिमा तो भगवान् की ही गाते हैं, परन्तु उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते।
श्रीमद् भागवत महापुराण (8.14.11)
परीक्षित् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें महाकल्प और अवान्तर कल्प का परिमाण सुना दिया। पुराणतत्त्व के विद्वानों ने प्रत्येक अवान्तर कल्प में चौदह मन्वन्तर बतलाये हैं।
जब जब भगवान खुद की इच्छा से
धर्म संस्थापना
के लिए धरा अवतरण करते हैं, तब तब उनके आने से पूर्व ही उनके जन्म स्थान, उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन, उनके भक्तों का वर्णन उस समय की धर्म की स्थिति तथा भगवान किस प्रकार
धर्म संस्थापना
करेंगे आदि युग संध्या से लेकर धर्म संस्थापना और नवयुग तक का वर्णन भगवान के निर्देश से पूर्व ही लिख दिया जाता है। ताकि मनुष्य समाज धर्म और धारा, सनातन संस्कृति का पालन करके रक्षा प्राप्त कर सके।
जिस प्रकार त्रेता युग में भगवान श्री राम जी के धरा अवतरण से पूर्व ही महर्षि वाल्मीकि जी ने जगत पिता ब्रह्मा जी के निर्देश से, देवर्षि नारद जी के मुखारबिंद से जो उन्होंने भगवान श्री राम जी के पावन चरित्र का गुणगान सुना था, उसका वर्णन 'रामायण ग्रन्थ' में किया।
द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण जी के धरा अवतरण से पूर्व, युग संध्या, धर्म की स्थिति और
धर्म संस्थापना
के विषय में महर्षि वेदव्यास जी ने भगवान श्री गणेश जी के सहयोग से हिमालय में तपस्या करते हुए 'महाभारत ग्रन्थ' की रचना की थी।
ठीक उसी प्रकार
कलियुग
में दूसरी बार जब भगवान ने नाम संकीर्तन की महिमा, अहिंसा प्रेम और भक्ति को संपूर्ण विश्व में प्रचार करने के लिए चैतन्य रुप में अवतार ग्रहण किया, उसी समय पंचसखा में अन्यतम महापुरूष अच्युतानंद दास, महापुरूष बलराम दास, महापुरूष जगन्नाथ दास, महापुरूष जसवंत दास और महापुरूष शिशु अनंत दास ने आज से 600 वर्ष पूर्व, 15 वीं शताब्दी में पावन उत्कल भूमि (उड़ीसा राज्य) में भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी के शिष्य के रुप में इस धरती पर आए। और भगवान श्री जगन्नाथ जी के निर्देश से '
भविष्य पुराण ग्रन्थ
' को संशोधित करते हुए '
भविष्य मालिका पुराण ग्रन्थ
' की रचना की। इस क्रम में उन्होंने '185000' ग्रंथों के समूह की रचना ताड़ के पत्तों में की, जिसको उड़िया भाषा में लिखा गया।
इस ग्रन्थ में पंच सखाओं ने
कलियुग के अंत में धर्म की स्थिति
,
भगवान श्री कल्कि जी का धरा अवतरण
,
धर्म संस्थापना
, मनुष्य समाज का उद्धार और अनंत युग तक की भगवान की लीलाओं का वर्णन विस्तार पूर्वक किया।
भविष्य मालिका
में लिखी हुई प्रत्येक बात पत्थर की गाढ़ है और हमेसा सच साबित हुई है। जैसे कि
भारत में मुगलों का अत्याचार
,
अंग्रेजो की गुलामी
,
स्वतंत्रता संग्राम की घटनाएं
और
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का वर्णन, भारत देश का टूट कर आजाद होना, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, बर्मा देश का निर्माण
,
प्रथम विश्व युद्ध
,
द्वितीय विश्व युद्ध
,
अज्ञात रोग
महामारी
आना आदि आदि ये सभी घटनाएं घटित हो चुकी हैं।
और इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से
भगवान श्री कल्कि जी के धरा अवतरण
, भक्तों का एकत्रीकरण, सुधर्मा महा-महा संघ और 16 मंडल का गठन, खंड प्रलय, अग्नि प्रलय, जल प्रलय, भूकंप, रोग महामारी एवं पारमाणुविक तृतीय विश्व युद्ध से लेकर
अनंत युग/ आद्य सतयुग
के आगमन तक का संपूर्ण वर्णन किया गया है।
भविष्य मालिका पुराण
के अनुसार सन् 2032 से पूर्व संपूर्ण विश्व में सभी धर्मों और पंथों का पुनर्गठन होकर सारे विश्व में केवल सत्य सनातन धर्म प्रतिष्ठित होगा।
यह
ग्रन्थ
आने वाले महाविनाश से रक्षा पाने के लिए संपूर्ण विश्व में एक मात्र चेतवानी और एक मात्र संजीवनी है।
पंडित श्री काशीनाथ मिश्र जी के 40 वर्षों से अधिक
मालिका
के अध्यन एवं अनुमोदन से, आज विश्व में पहली बार '
भविष्य मालिका पुराण ग्रन्थ
' प्रथम खंड को हिंदी सहित समग्र विश्व में, 150 से अधिक देशों में भिन्न भिन्न भाषाओं में प्रतिपादन एवं विमोचन किया जा रहा है।
इस ग्रन्थ में आने वाले महाविनाश और परिर्वतन की अधिकतम
भविष्यवाणियों
का शत् प्रतिशत वर्णन किया गया है।
ताकि आने वाले
महाविनाश
से पूर्व मनुष्य समाज को चेतावनी मिल सके और मनुष्य समाज सनातन आर्य वैदिक परंपरा का अनुपालन कर इस महाविनाश से रक्षा प्राप्त कर सके।
जब देवताओं से दैत्य राजा बलि ने स्वर्ग छीन लिया था उस समय अपने पति कश्यप जी के कहने से माता अदिति ने पयोव्रत रखा और जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दर्शन दिये और उनके पुत्र के रूप में अवतार लेने का वचन दिया,
श्री भगवान माता अदिति को बोलते हैं, ये गुप्त बात आप किसी को भी मत बताना क्योंकि देवताओं की बात को
हमेशा
गुप्त रखना चाहिए उसी से उनके कार्य सिद्ध होते हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान के अवतार के विषय में कही हुई बातें अत्यंत गुप्त होती हैं, जिसका पता भगवान की इच्छा से कुछ ही लोगों को होता है।
द्वापद् युग में भी जब भगवान श्री कृष्ण का अविर्भाव हुआ तो सिर्फ ब्रज के ही चंद लोग उन्हें भगवान हैं यह पहचान पाते थे।
स्वयं ब्रह्मा जी भी जिनकी माया से मोहित होकर ग्वाल बालों को उनकी गायों के सहित हर कर ले गए सिर्फ यह पहचानने के लिए कि क्या ये सच में भगवान ही हैं।
आज
कलियुग
के मूढ़ मानव जो तर्क वितर्क करते हैं उन्हें भगवान के इन अति गुप्त रहस्यों को जानना और समझना अति आवश्यक है।
नहीं महापुरुष अच्युतानंद दास जी लिखते हैं भविष्य मलिका केवल भक्तों के उद्धार के लिए लिखी गई है।
अर्थात 56 करोड़ जीव जंतु तथा 33 करोड़ देवी देवता भी इस गुप्त तत्व को नहीं जान सकते। यह तत्व जो पूर्व जन्म से कृष्ण भक्त हैं उन्हीं को प्राप्त हो सकता है।
समय-समय पर भगवान के निर्देश से विभिन्न धर्म ग्रंथो की रचना मानव सभ्यता के कल्याण के लिए की जाती है।
तथा कुछ धर्म ग्रंथो में संशोधन भी किया जाता है। यह केवल श्री भगवान जी के निर्देश से विशेष समय पर, तथा श्री भगवान जी के द्वारा चिन्हित विशेष व्यक्तित्व के द्वारा ही किया जाता है।
भविष्य पुराण में कलियुग तक की स्थिति का वर्णन किया गया है।
भविष्य मालिका पुराण में कलियुग का अंत, धर्म संस्थापना, भगवान कल्कि का आविर्भाव तथा अनंत युग तक का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह सनातन धर्म का आखिरी ग्रंथ है।
इस श्रृंखला में 185000 ग्रंथों का समूह है। इन ग्रंथ समूहों में भक्तों के चरित्र का वर्णन, राजाओं की वंशावली, भविष्य का विस्तृत वर्णन, किन पाप कर्मों की वजह से कलियुग का अंत हुआ, युग संध्या, धर्म संस्थापना, भगवान कल्कि के प्राकट्य, मानव सभ्यता की सुरक्षा तथा उद्धार के विषय में विस्तृत वर्णन किया गया है।
भविष्य मालिका पुराण ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान महाविष्णु के दसवें अवतार भगवान श्री कल्कि जी के विषय में संक्षिप्त में वर्णन किया गया है।
भगवान का अवतार कब होगा, कहां होगा, तथा संभल ग्राम कहां है? भगवान के माता-पिता कौन होंगे? आदि , तथा धर्म संस्थापना किस प्रकार होगी इस विषय में केवल भविष्य मालिका पुराण में ही वर्णन मिलता है। यह जगन्नाथ संस्कृति का परम तत्व है।
भविष्य पुराण या अन्य किसी भी धर्म ग्रंथों में भगवान श्री महाविष्णु जी के दशम अवतार श्री कल्कि भगवान जी का इतना विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है।
जब भी भगवान मनुष्य शरीर धारण कर धर्म संस्थापना के लिए धरा धाम पर आते हैं, तब इस बात का पता केवल कुछ चंद भक्तों को ही लग पाता है।
ये वह भक्त होते हैं जो पिछले युगों में भी भगवान के साथ धर्म संस्थापना में सानिध्य पा चुके होते हैं।
अर्थात भगवान के अति करीबी भक्त ही भगवत कृपा से भगवान की अचिंत्य लीला को समझ पाने में समर्थ होते हैं।
अन्य किसी भी व्यक्ति को बिना सुदृढ़ भक्ति भाव के भगवान का पता नहीं चल सकता है।
क्योंकि भगवान को इंद्रिय विषय से जाना या समझा नहीं जा सकता है । भगवान को जानने के लिए केवल भक्ति ही एकमात्र सरल मार्ग है।
द्वापर युग में भी जब भगवान श्री कृष्ण गोप गोपालों के साथ वृंदावन में लीला विहार कर रहे थे तो स्वयं ब्रह्मा जी भी उनके उस लीला विग्रह को समझ पाने में असमर्थ हो गए थे, इंद्रदेव भी भगवान के उस लीला विग्रह को नहीं समझ सके थे।
कलियुग के इस घोर कलि काल में साधारण मनुष्य इतनी आसानी से भगवान की लीला को कैसे समझ सकते हैं।
भगवान की लीला को समझने के लिए समर्पण भाव तथा निष्काम भक्ति नितांत आवश्यक है । तर्क वितर्क से भगवान के विषय का बिंदु मात्र भी पता नहीं पाया जा सकता है।
श्रीमद् भागवत महापुराण (1.1.20)
भगवान् श्रीकृष्ण अपने को छिपाये हुए थे, लोगों के सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो कोई मनुष्य हों। परन्तु उन्होंने बलराम जी के साथ ऐसी लीलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते।
श्रीमद् भागवत महापुराण (1.3.29)
भगवान् के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय - रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियम पूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।
श्रीमद् भागवत महापुराण (1.3.35)
वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान् के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्त्व ज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (1.9.16)
ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं।
श्रीमद् भागवत महापुराण (1.9.18-20)
ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं ।।18।।
इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर ! उसे भगवान् शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् कपिल ही जानते हैं ।।19।।
जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथी तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ।।20।।
श्रीमद् भागवत महापुराण (7.9.38)
पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन तथा विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं। इन अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्त रूप से ही रहते हैं, इसीलिये आपका एक नाम 'त्रियुग' भी है।
महात्मा पंचसखाओं ने भविष्य मालिका की रचना भगवान निराकार के निर्देश से की थी। भविष्य मालिका में मुख्य रूप से कलियुग के पतन के विषय में सामाजिक, भौतिक और भौगोलिक परिवर्तनों के लक्षणों का वर्णन किया गया है। शास्त्रों में उल्लेख के अतिरिक्त श्री जगन्नाथजी के मुख्य क्षेत्र को आदि वैकुंठ (मर्त्य वैकुंठ) बताया गया है। 5,000 वर्ष के कलियुग के बाद पंचसखाओं ने भक्तों के मन से संशय को दूर करने के लिए बताया कि भगवान की इच्छा के अनुसार श्री जगन्नाथजी के नीलाचल क्षेत्र से विभिन्न संकेत प्रकट होंगे जिनसे भक्तों को कलियुग की आयु के अंत और भगवान कल्कि के अवतरण के बारे में पूरी तरह से पता चल जाएगा। ये सारे तथ्य नीचे दिए गए गीत से हम समझ सकते हैं -
महात्मा अच्युतानंदजी ने उपरोक्त श्लोक में महाप्रभु श्री जगन्नाथ के प्रथम सेवक और सनातन धर्म के ठाकुर राजा (चौथे दिव्य सिंह देव) के विषय में वर्णन किया है। महापुरुष ने इसका भी उल्लेख किया कि जगन्नाथ के क्षेत्र में राजा इंद्रद्युम्न की परंपरा के अनुसार अलग-अलग समय में अलग-अलग राजा जगन्नाथ के क्षेत्र के प्रभारी थे। जब चौथे दिव्य सिंह देव कार्यभार संभालेंगे, तो 5000 साल बीत चुके होंगे। इससे महापुरुष अच्युतानन्द ने दो बातें सिद्ध कीं- एक ओर तो चौथे दिव्य सिंह देव राजा के रूप में पदभार संभालेंगे और दूसरी बात यह है कि
कलियुग के 5,000 वर्ष
पहले ही बीत चुके हैं। (अभी कलियुग का 5125वां वर्ष चल रहा है।)
महात्मा अच्युतानंद ने मालिका में लिखा कि जब चौथे दिव्य सिंह देव सत्ता में होंगे (जो आज हैं) तो वही कलियुग के अंत का प्रमाण होगा। पुनः महापुरुष अच्युतानंदजी ने उपरोक्त पंक्तियों में समझाया कि जब चतुर्थ दिव्य सिंह देव श्रीक्षेत्र में शासन करेंगे तो भगवान जगन्नाथ कल्कि अवतार ग्रहण कर मानव शरीर धारण कर साकार रूप में जन्म लेंगे और धर्म की संस्थापना का कार्य करेंगे।
महापुरुष अच्युतानंद जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि चौथे दिव्य सिंह देव के समय में
कलियुग
पूरा हो जाएगा और भगवान
जगन्नाथ को कल्कि
के रूप में एक बालक होकर जन्म लेना होगा।
अच्युतानंदजी ने अपने ग्रंथ ‘अष्ट गुजरी’ में समझाया-
अर्थात, अच्युतानंदजी मालिका की पवित्रता और सच्चाई की घोषणा कर भक्तों के मन में भक्ति और विश्वास को सजीव करते हुए कहते हैं कि सूरज पश्चिम दिशा में उदय हो सकता है और पर्वत की चोटी पर कमल खिल सकता है, लेकिन मेरे द्वारा लिखी वाणी कभी गलत सिद्ध नहीं होगी......
कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है या बाल्यावस्था में है और कलयुग की आयु 432 000 ऐसा पंडितों, कथाकारो और संतो कह रहे हैं किंतु श्रीमद् भागवत महापुराण में कलियुग की अवस्था के बारे में स्पष्ट प्रमाण दिए गए है। जब कलियुग के 2300 वर्ष बीत जाने पर भक्ति देवी और नारद मुनि का संवाद होता है इसका उल्लेख भागवत महात्म्य के प्रथम अध्याय दिया गया है। यह संवाद के अनुसार उस समय घोर कलियुग चल रहा था और कलियुग दारुण (मध्य)अवस्था में था, ऐसा नारद मुनि भक्ति देवी को कह रहे थे। यह नीचे दिए गए श्लोक से स्पष्ट होता है। अभी कलियुग को 5128 वर्ष बीत गए हैं । हमें यह सोचना होगा कि अभी कलियुग की कौन सी अवस्था चल रही होगी?
इस घोर कलि-कालमें जीव प्रायः आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥6॥
नारदजीने कहा-मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वीमें आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थों में मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मनको संतोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सहायक कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है।॥ 28-30॥
अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालनेमें लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभीका परिग्रह करते हैं। घरोंमें स्त्रियोंका राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभसे लोग कन्या-विक्रय करते हैं और स्त्री पुरुषोंमें कलह मचा रहता है ॥31-33॥
महात्माओंके आश्रम, तीर्थ और नदियोंपर यवनों (विधर्मियों) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टोंने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं ॥34॥
इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं ॥35॥
इस कलियुगमें सभी देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मणलोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्या वृत्तिसे निर्वाह करने लगी हैं ॥36॥
मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा ॥48॥
वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अंग- भंग कर दिया। चिरकालतक यह अवस्था रहनेके कारण मैं अपने पुत्रों के साथ दर्बल और निस्तेज हो गयी ।49॥
नारदजीने कहा-देवि! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं ॥ 57॥
लोग शठता और दुष्कर्ममें लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसारमें जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दुःखसे म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुषका धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है।॥58॥
पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छुनेयोग्य तो क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मंगल ही दिखायी देता है ॥ 59॥
जिस समय चंद्रमा सूर्य और बृहस्पति एक ही समय, एक ही साथ पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश करके एक राशि पर आएंगे उसी समय सत्ययुग का प्रारंभ होगा।
ज्योतिषी गणना के अनुसार इस कलियुग के 5127 वर्ष के काल में सप्त ऋषि ने पुष्य नक्षत्र में दो बार विचरण किया लेकिन यह खगोलीय घटना 1 अगस्त 1943 को ही घटित हुई है। अतः यह स्पष्ट होता है की 1 अगस्त 1943 से सत्ययुग युग की शुरुआत हो चुकी है।
जैसे किसी भी निर्माण को बनाने में अधिक समय लगा हो तो उसे ध्वस्त करने में भी कुछ समय जरुर लगता है, इसी प्रकार इस कलयुग को बनने में 5000 वर्ष का समय लगा और इसे ध्वस्त होने में भी 70-80 साल का समय लग सकता है।
जिस प्रकार भगवान ने वेदों को चतुष्पाद बनाया है उसी प्रकार ब्रह्माजी ने भी प्रत्येक युग को चार पादों में विभक्त किया है।
इन चार पादों के नाम इस प्रकार हैं-
1- प्रक्रिया पाद
2- अनुषंग पाद
3- उपोद्घात पाद
4- संहार पाद
और सत्ययुग एक पाद, त्रेतायुग दो पाद, द्वापरयुग तीन पाद और कलियुग चार पाद का भोग करता है।
इन श्लोक में चारों युगों की आयु 12,000 मानव वर्ष बतलाई गई है।
एक भी श्लोक में ‘दिव्य’ शब्द का प्रयोग नहीं, अपितु मानव वर्ष का प्रयोग हुआ है। अतः यह स्पष्ट होता है कि समय के साथ सनातन धर्मग्रंथों में रहस्यमय बदलाव किए गए हैं।
वायु पुराण (अध्याय 32), मनुस्मृति
सत्ययुग 4,000 मानव वर्ष का होता है । उसकी ‘सन्ध्या’ 400 वर्षों की होती है और ‘सन्ध्यांश’ 400 वर्षों का होता है । इस प्रकार सत्ययुग 4,800 वर्षों का और उसका एक पाद अर्थात चतुर्थ भाग 1,000 का होता है। 1,200 सौ वर्ष की आयु सत्ययुग की होती है।
त्रेतायुग 3,000 मानव वर्ष का होता है और उसकी संध्या के 300 वर्ष तथा सन्ध्यांश के 300 वर्ष मिलाकर 3,600 मानव वर्ष की आयु त्रेतायुग की होती है । यह त्रेतायुग दो भाग को भोगता है, एक प्रक्रिया पाद और दूसरा अनुषंग पाद, उन दोनों पाद के वर्ष और उस हिसाब से संध्या तथा संध्यांश के वर्ष मिलाकर 2,400 वर्षों की आयु त्रेतायुग भोगता है।
द्वापरयुग 2,000 वर्षों का बताया जाता है, 200 वर्ष संध्या के तथा 200 वर्ष संध्यांश के मिलाकर 2,400 वर्ष बताए गए हैं । लेकिन यह द्वापरयुग तीन पाद का समय भोगता है। एक प्रक्रिया पाद, दूसरा अनुषंग पाद और तीसरा उपोद्घात पाद - इन तीनों पाद के वर्ष और उस हिसाब से संध्या तथा संध्यांश के 300-300 वर्ष मिलाकर 3,600 वर्ष द्वापरयुग की आयु होती है ।
कलियुग हजार वर्षों का है और उसकी संधि 100 वर्षों तथा संध्यांश 100 वर्षों का है, इस प्रकार 1200 वर्ष होते हैं, परन्तु कलियुग चार पाद के समय को भोगता है, अर्थात एक प्रक्रिया पाद दूसरा अनुषंग पाद, तीसरा उपोद्घात पाद और चौथा संहार पाद, इस प्रकार चार पाद के 4,000 तथा उसके अनुसार संध्या तथा संध्यांश के 400, 400 वर्ष मिलाकर 4,800 वर्षों की आयु कलियुग भोगता है ।
संध्या और संध्यांश के साथ चारों युगों के 12000 वर्ष कहे गए हैं। इन सभी युग पादों का योग 10000 वर्षों का है और संध्या तथा संध्यांश 2000 वर्ष के हैं। इस प्रकार युग पादों की कुल अवधि 12000 वर्षों की कही गयी है।
इस श्लोक के अनुसार स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि सूर्य सिद्धांत में सौर वर्ष को ही दिव्य वर्ष माना गया है अन्य को नहीं।
चारो युगों का मिला के सूर्य वर्ष के 12000 साल भोग होता है | संध्या और संध्यांश को मिला के चारो युगों की यही धार्मिक व्यवस्था है |
अर्थात मनुष्य और देवताओं के दिन और रात्रि का विभाग सूर्य करता है। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि युग गणना मानव वर्षों (अर्थात सौर वर्षों) में की गई है न कि दिव्य वर्षों में।
अर्थात् चतुर्युग की गणना मनुष्य लोक की संख्या के अनुसार की गई है।
अर्थात कलियुग के 4000 वर्ष भोग होने के बाद, इसके संध्या समय के 400 वर्ष बाद, भगवान महाविष्णु (श्रीनाथ) धरती पर अवतार लेंगे और पाप के भार का अंत करेंगे।
माँ लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा को आपस में शाप के कारण पृथ्वी पे अवतीर्ण होना पड़ा। उनके उद्धार के विषय में प्रभु बता रहे है की कलियुग के पांच सहस्त्र वर्षो के पश्चात आपका मोक्ष होगा और नदी के रूप से मुक्त होकर आप वापस मेरे पास वैकुण्ठ में आ जाओगी।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे गंगा, तुम कलियुग में पांच हजार वर्ष तक पृथ्वी पर रहोगी। तुम्हारे जल में स्नान कर के मंत्रों के जाप से और तुम्हारे दर्शन करके पुण्य कमाने वाले भक्तो के सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।
मेरे भक्तो से रहित पृथ्वी कलि के प्रभाव से ग्रसित हो जायेगी। ऐसा कहके श्री कृष्ण ने देहत्याग कर दिया।
है बालक मैं तेरी अवस्था के 100 वर्ष को हजार वर्ष हजार वर्षों को दो युग दो युगों को तीन युग और तीन युगों को चार युग बनाता हूं। इस प्रार्थना को प्रसिद्ध इंद्र अग्नि तथा विश्व देव लज्जा अथवा क्रोध न करते हुए स्वीकार करें।
अर्थात यह परम् ब्रह्म परमात्मा के अधिकार में है कि वह किसी भी युग की आयु को कम या अधिक कर सकते हैं और उसे सभी को स्वीकार करना ही होगा।
- महाभारत वन पर्व (188. 29-64) (190. 1-88)
- श्रीमद् भागवत महापुराण (12.2, 1-16) (12.3, 25-50)
- वायु पुराण (58. 48-72)
- श्री हरिवंश पुराण भविष्य पर्व (अध्याय 3,4)
- श्री विष्णु पुराण षष्ठ अंश (अध्याय 1)
- रामचरितमानस उत्तर कांड (पेज 999- 1004)
- वाल्मीकि रामायण, रामायण माहात्म्य (1. 7-14)
कलियुग के अंत के लक्षण के विषय में उपर्युक्त धर्म ग्रंथों में जो वर्णन किया गया है वह इस प्रकार है -
कलियुग अंत के समय मनुष्य मिथ्यवादी हो जाएंगे।
यज्ञ, दान, व्रत, तप मुख्य विधि से न होकर गोंढ विधि से नाम मात्र होने लगेंगे।
लोग वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कर्म नहीं करेंगे।
ब्राह्मण शूद्रों के कर्म करेंगे जबकि शूद्र वैश्यों और क्षत्रियों के कर्म से जीविका उपार्जन करेंगे।
कलियुग के अंतिम भाग में ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय एवं दंड का त्याग कर देंगे, मांस-मछली और अभक्ष्य भक्षण करेंगे; जप, तप से दूर भागेंगे।
राजा चोर तथा प्रजा का शोषण करने वाले होंगे, छल से शासन करने वाले, पापी तथा असत्यवादी होंगे और जनता पर अनेक कर थोपेंगे।
मनुष्य नाटे कद के होंगे और उनमें शारीरिक शक्ति बहुत कम हो जाएगी।
ज्ञान न होने पर भी व्यर्थ ही ब्रह्मज्ञान की बातें कहेंगे और अभ्यक्ष भक्षणकर वेद पढ़ेंगे।
मनुष्य कामवासना में संलग्न होंगे तथा एक से अधिक स्त्रियों से संबंध बनाएंगे।
स्त्रियां भी नाटे कद की होंगी तथा पति को छोड़ परपुरुष का गमन करेंगी। स्त्रियां वेश्यावृत्ति से जीवन यापन करेंगी।
गायें बहुत कम दूध देंगी तथा उसमें मिठास नहीं होगी।
अन्न और फल में भी रस नहीं रहेगा। ब्राह्मण मदिरापान करेंगे तथा बहुत से मनुष्य मदिरापान जुआ और अभक्ष्य भक्षण करेंगे।
कलियुग के अंत में वेशधारी साधुओं की संख्या बढ़ जाएगी। वे अनेक पंथ-पाखंडों से लोगों को भ्रमित कर उन्हें लूटेंगे और ऐशोआराम में जीवन यापन करेंगे।
लोग थोड़े-से धन के लिए उन्मत्त होकर अपने ही सगे संबंधियों की हत्या करेंगे।
कलियुग के अंत में 7-8 वर्ष की स्त्रियां गर्भधारण करेंगी, 10 से 12 वर्ष के पुरुष भी पुत्र उत्पन्न करेंगे।
16 वर्ष की आयु में मनुष्य के बाल पक जाएंगे भ्रूणहत्या, जीवहत्या, गौहत्या, चोरी, डकैती हर जगह फैल जाएगी तथा मनुष्य की औसत आयु 25 से 30 वर्ष रह जाएगी।
सूर्यदेव की रश्मि बहुत प्रखर हो जाएगी, कभी सूखा पड़ेगा, कभी अचानक बरसात होगी, कभी बिना वर्षा ऋतु के बाढ़ आएगी, कोई भी ऋतु अपना धर्म पालन नहीं करेगी।
मनुष्य केवल धन अर्जित करने और कुटुंब पालन में ही संलग्न रहेंगे, लोग थोड़े-से धन का अहंकार करेंगे, इसी प्रकार और भी बहुत-से लक्षण जो कलियुग के अंत के बारे में विभिन्न धर्मग्रंथों में बताए गए हैं, वे सभी आज पूरे विश्व में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं।
पर किसी भी धर्म या सनातन धर्मग्रंथों में यह कहीं नहीं लिखा है कि कलियुग के अंत में मनुष्य चने अथवा बैंगन के पेड़ पर चढ़ेंगे, 7 से 8 वर्ष की स्त्री नानी बनेंगी और कहीं भी भागवत कथा नहीं होगी - ये सब बातें शास्त्र-सम्मत नहीं हैं। ये केवल भ्रामक बातें हैं।
जब देवर्षि नारद भक्ति माता से संवाद कर रहे थे उस समय उन्होंने बताया कि इस घोर कलियुग में सभी सनातन तीर्थ स्थल विधर्मियों के कब्जे में है। और कहीं पर भी भागवत का पाठ नहीं हो रहा था।
आज के धर्मगुरु जिस घोर कलि काल की बात करते हैं उस विषय में देवर्षि नारद पहले ही श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम अध्याय - भक्ति नारद संवाद में वर्णन कर चुके हैं।
यहां पर शुकदेव महामुनी महाराजा परीक्षित को आने वाले सात मन्वंतरों के मनु, सप्तर्षी, देवता तथा इंद्र कौन होंगे इस विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं।
अर्थात केवल रामायण, महाभारत अथवा भविष्य पुराण ही नहीं अपितु आने वाले हजारों युगों का भविष्य कैसा होगा, कौन राजा होंगे, कौन इंद्र होंगे, कौन प्रजापति होंगे, कौन सप्त ऋषि होंगे, कौन देवता होंगे आदि सभी का भविष्य पूर्व ही निर्धारित कर दिया जाता है।
समय आने पर भगवान की आज्ञा से भगवान द्वारा नियुक्त विशेष जनों के द्वारा यह गुप्त ज्ञान मानव समाज के कल्याण के लिए प्रदान किया जाता है।
देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनों के लिये जो प्रारब्ध का विधान है, उसे मिटा नहीं सकता।
मनुष्य लोग कर्म बंधन के अधीन है।
मनुष्य का भविष्य उसके वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्म के आधार पर निर्धारित होता है।
कोटी पुण्य उदय होने पर जीव को मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य को पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार उच्च, साधारण अथवा निम्न कुल में जन्म मिलता है।
मनुष्य योनि में किये गए कर्म के माध्यम से जीव की गति निर्धारित होती है, अर्थात जीव को उच्च तथा निम्न योनियों में भटकना पड़ता है।
84 लाख योनियों में से केवल मनुष्य योनि ही कर्म योनि है, बाकी सभी जीव भोग योनि के अंतर्गत आते हैं।
लेकिन केवल मनुष्य योनि में ही जीव के पास कर्म के द्वारा भविष्य निर्धारित करने की शक्ति होती है।
त्रिकाल संध्या, भागवत पठन तथा नाम भजन के माध्यम से मनुष्य अशुभ प्रारब्ध को भी शुभ में परिवर्तित कर सकते हैं और परम गति को भी प्राप्त कर सकते हैं।
पद्मपुराण उत्तरखंड और श्रीमद् भगवद् महात्म्य भक्ति नारद संवाद पहला अध्याय
जब भगवान श्री कृष्ण जी ने धरा धाम छोड़ा उसी समय से कलियुग आ गया था। और महाराज राजा परीक्षित के रहते उसका प्रभाव उतना अधिक नहीं था लेकिन जब राजा परीक्षित पर धाम को सिधार गए उसी समय से धीरे धीरे कलियुग ने अपना विस्तार शुरू किया।
कलियुग के मध्य समय लगभग 2500 वर्ष बीत जाने के पश्चात जब देवर्षि नारद जी पृथ्वी को श्रेष्ठ लोक समझकर आए तो उन्होंने देखा सनातन धर्म के सभी तीर्थ स्थल हरिद्वार, काशी, प्रयाग, द्वारिका, पुष्कर, रामेश्वरम, कुरुक्षेत्र, उज्जैन, मथुरा, आदि सभी तीर्थ स्थल विधर्मी अक्रांताओं के कब्ज़े में थे।
उसी समय सारे भारत भूमी में त्राहिमाम की स्थिति थी। घोर कलियुग ने क्रुर रूप धारण कर लिया था।
इंसान वेद मार्ग से च्युत हो गये थे। चारों ओर पाखंड का आडंबर था। सत्य, तप, सौच (बाहर भीतर की पवित्रता) दान, दया आदि कुछ भी नहीं बचा था।
साधु संत पाखंडी और लालची हो गए थे। बहुत अधिक संख्या में हिंदू मंदिर आक्रमण से नष्ट कर दिए गए थे। कलियुग के घोर प्रभाव से भक्ति लुप्त हो गई थी ज्ञान तथा वैराग्य जींर्ण हालत में थे।
तब नारद जी ने भक्ति माता से कहा यह दारुण (घोर) कलियुग है।
इस कारण इस समय पर सदाचार योग मार्ग तब आदि सब लुप्त हो गए हैं। श्रीमद् भागवत महात्म्य प्रथम अध्याय के अनुसार जिस समय देवर्षि नारद की भेंट भक्ति माता से हुई उसी समय कलियुग का मध्यकाल अर्थात घोर कलियुग चल रहा था।
जो लोग शास्त्रों के सार तत्व का ज्ञान न होने के कारण अज्ञानता वश कलियुग की अभी बाल्य अवस्था है ऐसा बोलते हैं, उन्हें सनातन धर्म ग्रंथों को अच्छे से अध्यन करना चाहिए। सभी सनातन धर्म प्रेमी सज्जनों को श्रीमद् भागवत महापुराण का नित्य पठन तथा त्रिकाल संध्या करना चाहिए जिससे हम सनातन के परम तत्व को जान सकें।
भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं यह सनातन धर्म मेरा ही रूप है।
'सनातन' का शाब्दिक अर्थ है - शाश्वत या 'सदा बना रहने वाला', यानी जिसका न आदि है न अन्त।
'धर्म' का शाब्दिक अर्थ है - धारण करना अर्थात उस वस्तु व्यक्ति विशेष के गुण की पहचान करना।
जैसे आकाश सनातन (शाश्वत) है, उसका धर्म अथवा गुण शब्द है।
वायु सनातन (शाश्वत) है, उसका धर्म अथवा गुण स्पर्श है।
अग्नि सनातन (शाश्वत) है, उसका धर्म अथवा गुण रूप है।
जल सनातन (शाश्वत) है, उसका धर्म अथवा गुण रस है।
पृथ्वी सनातन (शाश्वत) है, उसका धर्म अथवा गुण गंध है।
इसी प्रकार सभी मनुष्य सनातन (शाश्वत) हैं, उनका धर्म अथवा गुण है चेतना और सेवा
मनुष्य को चेतन रहते हुए सभी शास्वत, भौतिक, अभौतिक, ब्रह्मांड को सम भाव से देखना भेद की दृष्टि से नहीं और सत्य, प्रेम, दया, क्षमा, मैत्री धारण करना और त्रिसंध्या करते हुए सदाचार जीवन जीना यही सनातन धर्म का मूल तत्व है।
जैसे हवा, पानी, आकास, ईंधन(अग्नि) पृथ्वी सनातन है उसकी दृष्टि में कोई छोटा बड़ा ऊँचा नीचा या जाती धर्म भेद नहीं है। वह सभी प्राणियों के लिए समान रूप से अपना गुण अथवा धर्म देती है।
इसी प्रकार सनातन धर्म का अर्थ ये है कि हमेसा सभी के लिए समान गुण में स्थित रहना अथवा सभी जीव को आत्मा रूप देखना और समान व्यवहार करना।
वेद सनातन संस्कृति के परम शास्वत ग्रंथ हैं।
जो संसार के प्रत्येक जीव के जीवन से मृत्यु और जीव चक्र बंधन से मुक्ति और उद्धार के लिए बहुत उपयोगी हैं।
जिस प्रकार किसी भी वस्तु या उपकरण को हम खरीद कर लाते हैं तो उसमें उस वस्तु के इस्तेमाल की गाइड लाइन बुक हमें उसका इस्तेमाल कैसे करना है यह सिखाती है।
ठीक उसी प्रकार सृष्टि की उत्पति से पूर्व सृष्टि के संचालन के लिए निर्देश जो स्वयं भगवान परब्रह्म नारायण महाविष्णु जी के द्वारा श्रृष्टि के कल्याण के लिए प्रदान किये जाते हैं जो हमें मानव जीवन को कैसे जीना है यह सिखाते हैं, उन्हें वेद कहते हैं।
श्रृष्टि की उत्पति से अब तक भगवान के अनेकों अवतार हो चुके हैं।
भगवान के अनंत अवतारों का वर्णन जिन ग्रंथों में मिलता है उन्हें पुराण कहते हैं।
पुराणों की रचना भक्ति, ज्ञान, वैराग्य के द्वारा भगवद् प्राप्ति करने के लिए की गयी है।
भगवान के अनंत अवतारों में जितनी लीलाएं भगवान मृत्यु लोक में करते हैं, भक्तों के चरित्र का वर्णन, भूत और भविष्य का वर्णन उन सब लीला कथाओं का वर्णन पुराणों के माध्यम से स्वयं भगवान के निर्देश से किया जाता है।
जिससे कि मनुष्य उन लीला कथाओं को पढ़ सके और अनुसरण कर के मुक्ति और परम पद को प्राप्त कर सके।
वेदों का विभाग, महाभारत महाकाव्य ग्रंथ की रचना और अष्टादश पुराण की रचना करने के बाद भी जब महर्षि वेद व्यास जी का मन अपूर्ण सा था।
तब देवर्षि नारद जी ने व्यास जी से उस अपूर्णता का कारण बताया कि आपने ऐसे ग्रंथ की रचना नहीं की जिसमें भगवान श्री कृष्ण की लीला गुण और अवतारों का चरित्र वर्णन हो।
और कलिगुग में मनुष्य की आयु भी कम होगी बुद्धि भी वेद और अन्य धर्म ग्रंथों, शास्त्रों को समझने में असमर्थ होगी।
इसलिए कलियुग के अल्प बुद्धि मानव के उद्धार के लिए व्यास जी ने श्रीमद् भागवद् महापुराण की रचना की।
तथा भगवान ने वचन दिया कि में स्वयं भागवत में सदा विराजमान रहूँगा।
यह तत्व आदि ब्रह्म सनातन से सृष्टि हुआ है । यह सभी वेद, पुराण और उपनिषद का सार तत्व है इसी लिए यह महापुराण है।
इस परम शास्त्र के नित्य पठन से अकाल मृत्यु, रोग, महामारी, शत्रु भय आदि नहीं रहता है और मनुष्य कलियुग में भी भगवत प्राप्ति कर परम गति, मुक्ति तक जा सकता है ।
यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय रहस्यात्मक पुराण है । यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है।
संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लियेआध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है । वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्री शुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है । मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।
भगवान् श्री कृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोंनो पवित्र करने वाले हैं । वे अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्य सुहृद हैं।
जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो
जाती हैं, तब पवित्र कीर्ति भगवान् श्री कृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है।
तब रजोगुण और तमोगुण के भाव - काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इन से रहित होकर सत्त्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है।
इस प्रकार भगवान् की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियाँ मिट जाती हैं, हृदय आनन्द से भर जाता है, तब
भगवान् के तत्त्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है।
हृदय में आत्मस्वरूप भगवान् का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है।
इसी से बुद्धिमान् लोग नित्य-निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान् श्री कृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है।
वेदों का विभाग, अष्टादस पुराण की रचना करने के बाद भी महर्षि वेदव्यास जी का मन कुछ उदास सा था।
देवर्षि नारद जी के पूछने पर महर्षि वेदव्यास जी ने अपना उदासी का कारण बतलाते हुए कहा कि हे देवर्षि नारद जी मैंने अनेकों ग्रंथों की रचना की अष्टादस पुराण, महाभारत जैसे महाकाव्य की रचना करने के बाद भी मेरे मन में एक सवाल आता है!
कि कलियुग में मनुष्य की अल्प आयु होगी बुद्धि भी अल्प होगी, ऐसे में इतने ग्रंथों के लाखों श्लोक का सार तत्व कलियुग के मनुष्य कैसे समझ पाएंगे अर्थात वह भगवत् प्राप्ति के मार्ग में कैसे अग्रसर हो पाएंगे। इस घोर कलियुग में तो मुक्ति मिल पाना असंभव है।
इस पर देवर्षि नारद जी बोले आप एक ऐसे ग्रंथ की रचना करो जो कि भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से युक्त हो तथा भगवान श्री कृष्ण की मधुमयी लीलाओं से रसमय हो। जिसके श्रवण, पठन तथा मनन से कलियुग के कलिमुस से छूट कर जीव का उद्धार हो सके और कलियुग में मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सके।
इसी कारण कलियुग में मानव कल्याण के लिए वेदव्यास जी ने अति दुर्लभ श्रीमद् भागवत महापुराण शास्त्र की रचना की जिसमें भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य, तत्व को प्रमुखता दी गई है।
भगवान श्री कृष्ण अपने स्वधाम गमन से पहले उद्धव जी को यह बताते हैं कि मैं कलियुग में भागवत् के रूप में शाश्वत विद्यमान रहूंगा। तथा जो भी मनुष्य श्रीमद् भागवत् महापुराण शास्त्र का नित्य पठन करेंगे उन्हें रोग, दुःख तथा अकाल मृत्यु के भय से दूर कर बैकुंठ को ले लूंगा।
इसी कारण कलियुग में श्रीमद् भागवत महापुराण शास्त्र को अन्य सभी ग्रंथों से सर्वश्रेष्ठ और एकमात्र शीघ्र मुक्ति का साधन बताया गया है । यह ग्रंथ केवल कलि काल में मनुष्यों के लिए उपलब्ध है, यह कथा देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
जब शुकदेव महामुनि राजा परीक्षित को यह देव दुर्लभ कथा का रसापान करा रहे थे तो उस समय देवता अमृत का कलश लेकर वहां आए। उन्होंने शुकदेव जी से प्रार्थना की हम महाराज परीक्षित को अमृत पान कराएंगे उसके बदले आप हमें भागवतामृत का दान दे दीजिए। उस समय शुकदेव जी ने देवताओं को अल्प ज्ञानी तथा इस परम गोपनीय शास्त्र का अनाधिकार समझकर उन्हें भागवत अमृत नहीं दिया।
सूत जी शौनकादि ऋषियों को कहते हैं तुम्हारे ह्रदय में भगवद प्रेम है। इसलिए मैं विचार करके संपूर्ण सिद्धांतों का निष्कर्ष सुनाता हूं जो की जन्म मृत्यु के भय का नाश कर देता है।
जो भक्ति के प्रवाह को बढ़ाता है तथा भगवान श्री कृष्ण की प्रसन्नता का प्रमुख कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बताता हूं सावधान होकर सुनो।
श्री शुकदेव महामुनि ने कलियुग में जीवों के काल रूपी सर्प के ग्रास के भय से आत्यांतिक नाश करने के लिए श्रीमद् भागवत् महापुराण शास्त्र का प्रवचन किया है।
मन की शुद्धि के लिए इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है। जब जन्म-जन्मांतर के पुण्यों का उदय होता है तभी मनुष्य को भागवत शास्त्र की प्राप्ति होती है।
अतः सभी मानव समाज को उद्धार के लिए इस अति दुर्लभ परम भागवत शास्त्र का नित्य पठन करना अन्य शास्त्रों की तुलना में अति आवश्यक है।
श्रृष्टि को सुचारु रूप से संचालन के लिए वर्ण व्यवस्था बनाई गई।
श्रीमद् भागवत महापुराण (11.17.10) इस बात की पुष्टि करता है कि इस कल्प के प्रारंभ में सभी मनुष्य का 'हंस' नामक केवल एक ही वर्ण (जाती) था।
उस समय सभी लोग जन्म से ही कृतकृत्य अर्थात संतुष्ट थे। इसी लिए उस युग का एक नाम कृत युग भी है।
समय के साथ साथ वेदों का विभाग होने से कर्म रूप विभाग हुआ। ब्राह्मण भगवान के मुख, क्षत्रिय भगवान की भुजाएँ, वैश्य भगवान की जंघा और शुद्र भगवान के चरण माने गए हैं।
यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान देना और दान लेना ये ब्रह्मण के कर्म बताये गए हैं।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव अर्थात शासन करने की योग्यता ये क्षत्रिय के कर्म हैं।
खेती करना, गायों की रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करना ये वैश्य के कर्म हैं।
अन्य सभी वर्णों की सेवा करना शुद्र के कर्म हैं।
भगवद् गीता (18.41)
भगवान बोलते हैं कि मनुष्य की वर्ण (जाती) जन्म से नहीं अपितु कर्म से निर्धारित होती है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म में कोई जाति भेद नहीं है। कालांतर में सनातन धर्म को ह्रास करने के उद्देश्य से जाती भेद भाव को प्राथमिकता दी गई।
मुक्ति अथवा परम गति का अर्थ है जीव चक्र बंधन से मुक्त होकर एक अमर शरीर को प्राप्त करना।
प्रत्येक जीव 84 लाख योनि में भटकते हुए कभी मनुष्य, कभी पशु-पक्षी, कभी कीट, कभी जलचर, कभी छोटे-छोटे जीव आदि योनियों में जन्म लेते हैं।
मुक्ति प्राप्त करने के लिए केवल मनुष्य योनि ही एकमात्र योनि है, अन्य किसी भी योनियों में मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती है।
जीव को मनुष्य जन्म केवल भगवत भक्ति करके मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही मिला है।
भगवत भक्ति ही एकमात्र सरल मार्ग है जिस मार्ग में चलकर मनुष्य को परम गति (बैकुंठ लोक) प्राप्त हो सकता है।
जब जीव को मुक्ति मिलती है तो मृत्यु के समय भगवान महाविष्णु के पार्षद आकर मुक्ति प्राप्त जीव को सोने के विमान में बिठाकर अमर लोक (बैकुंठ लोक) की यात्रा पर ले जाते हैं।
जहां मनुष्य को एक दिव्य शरीर की प्राप्ति होती है। जिसे अमर शरीर भी कहते हैं। जिसका न तो कभी क्षय होता है, ना बुढ़ापा होता है, ना ही भूख लगती है, ना प्यास लगती है, ना दुख होता है, ना रोग होता है, जहां मनुष्य हमेशा नौजवान ही रहता है।
जहां मनुष्य हमेशा भगवान श्री कृष्ण, माँ राधा रानी तथा उनके पार्षदों के साथ आनंद ही आनंद में रहता है। उस दिव्य शरीर का ब्रह्म प्रलय के समय भी कभी क्षय नहीं होता है।
श्रीमद् भागवत महापुराण ( 1.2.5-11)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति हो-भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे ऐसी भक्ति से हृदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है।
भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है।
धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान् की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है।
धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिये है। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया है।
भोगविलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्त्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है।
तत्त्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
सनातन संस्कृति के अनुसार तीन संध्या काल पर ब्रह्मांड की उत्पत्ति तथा स्थिति को नियंत्रित करने के लिए भगवान महाविष्णु की स्तुति तथा उनको धन्यवाद किया जाता है।
प्रातः-ब्रह्म मुहूर्त, मध्यान- तथा सूर्यास्त (गोधूलि) समय को संध्या काल कहा जाता है।
प्रातः संध्या जब रात्रि अतिक्रांत होती है और सूर्योदय होता है वह एक संध्या काल है।
मध्यान संध्या जब दिन चढ़ता है वह एक संध्या काल है।
सायं संध्या जब सूर्य अस्त होता है दिन ढलता है, तथा रात्रि का आगमन होता है, वह एक संध्या काल है।
इन तीन समय पर देवता, ऋषि, मुनि, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मलोक, कैलाश लोक, पितृलोक, सूर्य लोक, चंद्रलोक आदि सब जगह पर भगवान महाविष्णु की स्तुति की जाती है।
कलियुग के घोर प्रभाव के कारण सनातन संस्कृति का विलोप होता चला गया तथा मनुष्य के दैनिक कर्म और त्रिसंध्या धारा का लोप हो गया।
पुनः महापुरुष अच्युतानंद दास जी ने भविष्य मालिका में कली कलमष से उद्धार तथा सत्ययुग में जाने के लिए त्रिसंध्या धारा को बहुत महत्वपूर्ण तथा सभी मानव के कल्याण लिए जरूरी बताया गया है।
त्रिकाल संध्या में मुख्यतः भगवान महाविष्णु तथा मां महालक्ष्मी की स्तुति की जाती है।
त्रिकाल संध्या में -
गायत्री महामंत्र
श्री 10 अवतार स्तोत्र
श्री विष्णु षोडश नाम स्तोत्र
श्री दुर्गा माधव स्तुति
तथा अति दुर्लभ-अति पावन माधव नाम भजन किया जाता है।
गायत्री मंत्र :-
वेद और सनातन शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र की रचना गायत्री माता के द्वारा संसार के कल्याण के लिए की गयी।
इस सूत्र में सारे ब्रह्मांड (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, सूर्य लोक, चंद्र लोक, पितृ लोक, पाताल लोक आदि सभी भुवन) का वर्णन है।
इस श्लोक का भजन करने से मानव, देवता, ऋषि, मुनि, पितृ, यक्ष, गंधर्व सभी का कल्याण होता है।
भगवान महाविष्णु जी के धर्म संस्थापना के 16 नाम चतुर्युग के अवतारों के सबसे महत्वपूर्ण 16 अवतारों के नाम हैं।
यह मंत्र मानव जीवन के जन्म से मृत्यु, और जीव चक्र बंधन से, सामाजिक, भौतिक और पारिवारिक आपदा से रक्षा पाने के लिए प्रतिफलदायक है।
श्री विष्णु षोडश नाम स्तोत्र:-
औषधि लेते समय श्रीविष्णु (जो सृष्टि का भरण, पोषण और पालन करने वाले हैं) का स्मरण करें, भोजन करते समय जनार्दन (लोगों के कष्ट हरने वाले श्रीकृष्ण) का स्मरण करें ।
सोते समय पद्मनाभ (जिनकी नाभि में कमल है) का स्मरण करें, विवाह के समय प्रजापति (सृष्टि को उत्पन्न करने वाले) का स्मरण करें ।
युद्ध के समय चक्रधर देवता (चक्रधारी श्रीविष्णु/श्रीकृष्ण) का स्मरण करें, प्रवास (यात्रा) में त्रिविक्रम (तीन कदमों से सारे विश्र्व को अतिक्रमण करने वाले) का स्मरण करें ।
मृत्यु के समय नारायण (जल जिसका प्रथम अयन या अधिष्ठान है) का स्मरण करें, पतिपत्नी के समागम पर श्रीधर (देवी लक्ष्मी के पति) का स्मरण करें ।
बुरे स्वप्न आते हों तो गोविंद (गोशाला या गौओं के अध्यक्ष - श्रीकृष्ण) का स्मरण करें, संकट में मधुसूदन (मधु नामक दैत्य को मारने वाले, श्रीकृष्ण) का स्मरण करें ।
जंगल में संकट के समय नृसिंह (श्रीविष्णु का अवतार, जिनका आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का था) का स्मरण करें, अग्नि संकट के समय जलाशयी (जो समुद्र में वास करते हैं) का स्मरण करें।
पानी में डूबने का भय हो तो वराह (श्रीविष्णु के सूअर का अवतार) का स्मरण करें, गमन करते समय वामन (श्रीविष्णु का बौना अवतार) का स्मरण करें।
पर्वत पर संकट के समय रघुनंदन (श्रीविष्णु का श्रीराम अवतार) का स्मरण करें ,कोई भी कार्य करते समय माधव (शहद के समान मीठा) का स्मरण करें।
जो हर दिन त्रिसंध्या काल के समय भगवान विष्णु के इन सोलह पवित्र नामों का पाठ करता है,
वह अपने सभी पापों से मुक्त हो जाएगा, और जब वह शरीर का त्याग करेगा, वह वैकुंठ लोक (सर्वोच्च लोक) प्राप्त करेगा।
भगवान महाविष्णु जी ने चारों युगों में महत्वपूर्ण 24 अवतार धारण करके धरती माता का उद्धार किया था ।
जिसमें से धर्म संस्थापना के 10 मुख्य अवतार हैं । जो मनुष्य इस दश अवतार के श्लोक को रोज त्रिसंध्या के माध्यम से प्रार्थना करते हैं, उन सभी मानव का सांसारिक, भौतिक, पारिवारिक आपदा से उद्धार हो जाता है । और मानव जीवन के सबसे बड़े दुर्लभ परम पद मोक्ष गति को प्राप्त होता है ।
श्री दशावतार स्तोत्र -
हिंदी अनुवाद:
हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेदके सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तुका उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रमके निर्मल चरित्रके समान प्रलय जलधिमें मत्स्यरूपमें अवतीर्ण होकर वेदोंको धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो ॥1॥
हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठके एक प्रान्तमें पृथ्वीको धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रणके चिन्होंसे गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो ॥2॥
हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है ॥3॥
हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमलमें नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपुके शरीरको आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्पका विदारण कर देता है, आपकी जय हो ॥4॥
हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरतीकी याचनाकी क्रियासे बलि राजाकी वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो ॥5॥
अनुवाद – हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुलका विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिलसे जगतको पवित्र कर संसारका सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो ॥6॥
हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राममें इन्द्रादि दिक्पालोंको कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावणके किरीट भूषित शिरोंकी बलि दशदिशाओंमें वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो ॥7॥
हे जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघोंकी शोभाके सदृश नील वस्त्रोंको धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर आपके वस्त्रमें छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो ॥8॥
हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओंकी हिंसा देखकर श्रुति समुदायकी निन्दा की है। आपकी जय हो ॥9॥
हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो ॥10॥
हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपोंको धारण करनेवाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कविकी औदार्यमयी, संसारके सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुतिको सुनें ॥11॥
दुर्गा माधव स्तुति :-
परम कृपामयी जगतजननी माँ दुर्गा और परम कृपामय माधव का जय हो। जिन दुर्गा की सेवा करके माधव मेरे प्रभु बने हैं, उनकी जय हो।
है देवी दुर्गा ! आप अनेक रूप से चारों और व्याप्त है। रमा, उमा, बाणी, राधा - ये सब आपके ही रूप हैं। आपको छोड कर संसार में अन्य कोई नहीं है।
आप मदन मोहन के रूप में चारों ओर व्याप्त हो। हे सर्वमंगला ! मोहन के चित्त को चुराने वाली आप ही हो।
जब कभी धर्म संस्थापना के लिए नारायण का जन्म होता है, तो देवी दुर्गा को छोड़ कर उनमें खेलने की शक्ति कहां होती है।
हे महामायी ! माधव के खेल के लिए ही तुम शरीर धारण करती हो। कभी पति के रूप में, तो कभी पुत्र के रूप में तुम माधव को खेलने में सहायक होती हो।
माधव को दुर्गा के गोद में खेलता हुआ जो अपने दोनो आंखो से देखता है, उसका भाग्य का वर्णन ब्रम्हा और शिव भी नहीं कर सकते।
है दुर्गति नाशिनी ! है अभिराम के जननी ! मेरी यह प्रार्थना है की माधव को गोद में ले कर इस धरा पर शुभ आगमन करें।
भगवान माधव (कल्कि राम) के 108 नाम भजन
इस समय कलियुग को 5128 साल चल रहा है।
विभिन्न सनातन शास्त्रों /ग्रंथों और भविष्य मालिका पुराण के अनुसार भगवान माधव, कल्कि रूप में धरा अवतरण करेंगे इसकी रचना की गई है।
इसी कारण सभी सनातनियों को भगवान 'माधव' नाम भजन करना सबसे जरूरी महत्वपूर्ण तत्व है।
जिस प्रकार त्रेता युग में भगवान 'राम' नाम से सभी मनुष्य ऋषि मुनि आदि का उद्धार हुआ था।
द्वापद् युग में भगवान 'कृष्ण' नाम से सभी का उद्धार हुआ था।
ठीक उसी प्रकार कलियुग के इस संहार संधि काल में 'माधव' नाम ही उद्धार का एक मात्र सहारा है।
भगवान शंकर माता पार्वती को कहते हैं :-
सम्पूर्ण जगत् का स्वामी होने पर भी मैं विष्णु भगवान् के नाम का ही जप करता हूँ। मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ, भगवान् को छोड़कर जीवों के लिये अन्य कर्मकाण्ड आदि कोई भी गति नहीं है।
परीक्षित् ! यों तो कलियुग दोषों का खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है ही है कि कलियुग में केवल भगवान् श्री कृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
सत्ययुग में भगवान् का ध्यान करने से, त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करने से और द्वापर में विधि-पूर्वक उनकी पूजा-सेवा से जो फल मिलता है, वह कलियुग में केवल भगवन्नाम का कीर्तन करने से ही प्राप्त हो जाता है।
चक्रपाणि भगवान् की शक्ति और पराक्रम अनन्त है- उनकी कोई थाह नहीं। वे सारे जगत् के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपटभाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है- सेवाभाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है।
जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान् प्रकट हो जाते हैं।
जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने सत्य संकल्प और वेद वाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किए हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता।
श्री भगवान् ने कहा- ब्रह्माजी! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टि रचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भली भाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योग साधन करने वाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते।
जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त हैं-उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वेश्वर्यपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान्को में नमस्कार करता हूँ।
सत्ययुग में मनुष्य अपने तपोबल का दुरुपयोग तथा तपोवल से श्राप देने के कारण सत्ययुग अपनी संपूर्ण आयु का भोग नहीं कर पाता है।
त्रेतायुग में मनुष्य कामना वासना एवं ब्राह्मणों तथा ऋषियों को प्रताड़ित करने के कारण युग का अंत हो जाता है।
द्वापर युग में धन के लालच तथा जुवा, कलह, नारी का सम्मान ना होना आदि की अधिकता के कारण युगांत हो जाता है।
कलियुग, जीव हत्या तथा बहुत से अन्य जघन्य पापों की वजह से अपनी संपूर्ण आयु भोग नहीं कर पाता है।
Jai Shree Madhav
Submitted
You will be contacted soon
Jai Shree Madhav
Dhanyawad!
Your Questions will be added after approvel